प्रसुत ज्वर PUERPERAL FEVER का आयुर्वेदिक इलाज onlyayurved
[ads4]श्री धन्वन्तरी के अनुसार बालक पैदा करने (जनने) के डेढ़ महीने बाद या रजोदर्शन होने के बाद स्त्री का नाम प्रसूता नही रहता है।
बंगेसन के अनुसार –
प्रसुत रोगों में जवर, अतिसार,सुजन,शूल,आफर,बलनाश,तन्द्रा,अरुचि,मुंह से जल गिरना इत्यादि कफ और वात से पैदा होने वाले अनेक रोग होते है। यह सब रोग बल और मांस कि क्षीणता से होते हैं। इन सभीगो को “सूतिका रोग” कहते हैं। इन में से कोई एक रोग मुख्य होता है , बाकि सभी उसी के उपद्रव होते हैं ।
विशेष-
सूतिका रोग को नाष करने हेतु वात नाशक क्वाथ सेवन करने चाहिए और अन्य उपाय भी स्वेद,उपनाह,मालिश,और अवगाहन (स्नान) इसमें हितकारी हैं।
प्रसुत ज्वर का परिचय
प्रसुत ज्वर को अंगेजी में PUERPERAL FEVER भी कहते हैं। बालक पैदा होने के बाद प्रायः दुसरे या तीसरे दिन यह ज्वर चदता है। इस ज्वर में रोगी का तापमान 104 से 106 डिग्री तक हो जाता है। गर्भाशय में पीड़ा होती है। तदुपरांत यह पीड़ा या वेदना पुरे शरीर में फ़ैल जाती है। रोगिणी कि आँखे भीतर घुस जाती हैं,भ्रम होता है। पतले दस्त लगते हैं,कमजोरी आ जाती है,वामन यानि उलटी होती है,जीभ मैली रहती है,छातियो का दूध नष्ट हो जाता है। कभी कभी अच्छी चिकित्सा के आभाव में रोगिणी को शीत आकर मृत्यु भी हो सकती है। कि मृत्यु के समय जीभ रुखी और कलि हो जाती है। रोग में रोगिणी महिला के गर्भाशय में सुजन आ जाती है या गर्भाशय सिकुड़ जाता है।उसकी दीवार भी ढीली हो जाती है।
विशेष –
गर्भाशय का मल सुखाने हेतु दशमूल का काढ़ा दिय जाता है और रोगिणी को ठण्ड से बचाकर गरम स्थान पर रखा जाता है।औटा हुवा गर्म पानी पिने को दिया जाता है ।ज्वर कि हालत में अथवा अन्य रोगों कि दशा में ‘जैसा रोग वैसा ही पथ्थ देना चाहिए और अग्नि, मेहनत, शीतल, आहार,तथा मैथुन इत्यादि से परहेज रखना चाहिए । पन्चजिरकपाक और सौभाग्य कामिनी शुन्टी पाक का सेवन प्रसुताओ के लिए अमृत सम्मान है ।
आइये आब आपको बता रहे है इसकी चिकित्सा –
दशमूल के गरमा गर्म काढ़े में घी मिलाकर पिलाने से ज्वर इत्यादि सूतिका रोग नष्ट हो जाते हैं।दशमूल कि दसों दवाओं को दूध मी पकाकर और मिश्री मिलकर सेवन करने से भी प्रसूता स्त्रियों के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।
दशमूल के काढ़े कि भांति ही शास्त्रीय औषधि –
” दारवादी क्वाथ ” प्रसुताओ के सेहत के लिए अति लाभकारी है ।इसके सेवन से ज्वर ,खांसी ,शूल दर्द,बेहोसी,कंपकंपी,सिरदर्द,अनाप-शनाप बकना,प्यास,दाह,जलन,तन्द्रा,पतले दस्त और वाट और कफ से उतपन्न हुए प्रसूता के सभी रोग जड़ मूल से नष्ट हो जाते हैं ।परीक्षित है ।
तपाया हुवा लोहां, मुंग के युष में भुझाकर पीलाने से सूतिका रोग नष्ट हो जाता है।
यदि प्रसुतावस्थामें अधिक रक्त यानि खून प्रवाह,ज्वर,खांसी तथा सर्वांग शूल कि स्थिति होतो निम्नाकित औषधि व्यवस्था करना लाभकारी है।
नागकेशर का चूरन एक माशा,
मकरध्वज चार चावल भर,
प्रताप लंकेश्वर रस एक रति,
सभी को एकत्र घोंटकर तथा आवालें के मुरबो में मिलाकार सेवन करवाए तथा ऊपर से दशमूलारिष्ट या जिरकधारिष्ट पिलायें। इससे बहुत ही ज्यादा लाभ होगा ।
विशेष –
मकरध्वज रस में सिंदूर,स्वर्ण भष्म ,लोह्भषम,लॉन्ग,कपूर,जायफल,कस्तूरी समान भाग का योग रहता है ।इसे पान के स्वरस में घोटकर बनाते हैं।2-3 रति किगोली बकरी के दूध अथवा अन्य उचित अनुपान के साथ सेवन करने से जीर्ण ज्वर ,विषम ज्वर आदि को भी दूर करता है तथा सशक्ति भी प्रदान करता है ।
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