एक माली ने अपना तन मन धन लगाकर कई दिनों तक परिश्रम करके एक सुंदर बगीचा तैयार किया, जिसमें भाँति-भाँति के मधुर सुगंधयुक्त पुष्प खिले। उन पुष्पों से उसने बढ़िया इत्र तैयार किया। फिर उसने क्या किया, जानते हो ? …….
उस इत्र को एक गंदी नाली (मोरी) में बहा दिया। अरे ! इतने दिनों के परिश्रम से तैयार किये गये इत्र को, जिसकी सुगंध से उसका घर महकने वाला था, उसने नाली में बहा दिया !
आप कहेंगे कि ‘वह माली बड़ा मूर्ख था, पागल था…..’ मगर अपने-आप में ही झाँककर देंखें, उस माली को कहीं और ढूँढने की जरूरत नहीं है, हममें से कई लोग ऐसे ही माली हैं। वी*र्य शरीर की बहुत मूल्यवान धातु है। भोजन से वी*र्य बनने की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है। वी*र्य बचपन से लेकर आज तक, यानी 15-20 वर्षों में तैयार होकर ओजरूप में शरीर में विद्यमान रहकर तेज, बल और स्फूर्ति देता रहा। आचार्य सुश्रुत ने वी*र्य के बारे में कहा है के
रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते।
मेदस्यास्थिः ततो मज्जा मज्जायाः शुक्र संभवः।।
अर्थात जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है। पाँच दिन तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है। पाँच दिन बाद रक्त से मांस, उसमें से 5-5 दिन के अंतर से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत में वी*र्य बनता है। स्त्री में जो यह धातु बनती है उसे ‘रज’ कहते हैं। इस प्रकार वी*र्य बनने में करीब 30 दिन व 4 घण्टे लग जाते हैं।
वैज्ञानिक बताते हैं कि 32 किलो भोजन से 800 ग्राम रक्त बनता है और 800 ग्राम रक्त से लगभग 20 ग्राम वी*र्य बनता है।
आकर्षक व्यक्तित्व का कारण वी*र्य के संयम से शरीर में अदभुत आकर्षक शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे प्राचीन वैद्य धन्वंतरि ने ‘ओज’ कहा है। यही ओज मनुष्य को परम लाभ-आत्मदर्शन कराने में सहायक बनता है। आप जहाँ-जहाँ भी किसी के जीवन में कुछ विशेषता, चेहरे पर तेज, वाणी में बल, कार्य में उत्साह पायेंगे, वहाँ समझो वी*र्यरक्षण का ही चमत्कार है।
एक स्वस्थ मनुष्य एक दिन में 800 ग्राम भोजन के हिसाब से 40 दिन में 32 किलो भोजन करे तो उसकी कमाई लगभग 20 ग्राम
वी*र्य होगी। महीने कि करीब 15 ग्राम हुई और 15 ग्राम या इससे कुछ अधिक वी*र्य एक बार के मै*थु*न में खर्च होता है।
अभी भी जो करीब 30 दिन के परिश्रम की कमाई थी, उसे यों ही सामान्य आवेग में आकर अविवेकपूर्वक खर्च कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है !
क्या यह उस माली जैसा ही कर्म नहीं है ? वह माली तो दो-चार बार यह भूल करने के बाद किसी के समझाने पर संभल भी गया होगा, फिर
वही की वही भूल नहीं दोहरायी होगी परंतु आज तो कई लोग वही भूल दोहराते रहते हैं। अंत में पश्चाताप ही हाथ लगता है। क्षणिक सुख के लिए व्यक्ति का*मांध होकर बड़े उत्साह से इस मै*थु*नरूपी कृत्य में पड़ता है परंतु कृत्य पूरा होते ही वह मुर्दे जैसा हो जाता है। होगा ही, उसे
पता ही नहीं कि सुख तो नहीं मिला केवल सुखाभास हुआ परंतु उसमें उसने 30-40 दिन की अपनी कमाई खो दी। युवावस्था आने तक वी*र्य
संचय होता है। वह शरीर में ओज के रूप में स्थित रहता है। वी*र्यक्षय से वह तो नष्ट होता ही है. साथ ही अति मै*थुन से हड्डियों में से भी कुछ सफेद अंश निकलने लगता है, जिससे युवक अत्यधिक कमजोर होकर न*पुंस*क भी बन जाते हैं। फिर वे किसी के सम्मुख आँख उठाकर भी नहीं देख पाते। उनका जीवन नरकीय बन जाता है।
वी*र्य*रक्षण का इतना महत्त्व होने के कारण ही कब मै*थुन करना, किससे करना, जीवन में कितनी बार करना आदि निर्देश हमारे ऋषि-मुनियों ने शास्त्रों में दे रखे हैं। सृष्टि क्रम के लिए मै*थुनः एक प्राकृतिक व्यवस्था शरीर से वी*र्य-व्यय यह कोई क्षणिक सुख के लिए प्रकृति की व्यवस्था नहीं है। संतानोत्पत्ति के लिए इसका वास्तविक उपयोग है। यह सृष्टि चलती रहे इसके लिए संतानोत्पत्ति जरूरी है। प्रकृति में हर प्रकार की वनस्पति व प्राणिवर्ग में यह काम-प्रवृत्ति स्वभावतः पायी जाती है। इसके वशीभूत होकर हर प्राणी मै*थुन करता है व उसका सुख भी उसे मिलता है किंतु इस प्राकृतिक व्यवस्था को ही बार-बार क्षणिक सुख का आधार बना लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ! पशु भी अपनी ऋतु के अनुसार ही का*मवृत्ति में प्रवृत्त होते हैं और स्वस्थ रहते हैं तो क्या मनुष्य पशुवर्ग से भी गया बीता है ? पशुओं में तो बुद्धितत्त्व विकसित नहीं होता पर मनुष्य में तो उसका पूर्ण विकास होता है।
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
अर्थात – भोजन करना, भयभीत होना, मै*थुन करना और सो जाना – ये तो पशु भी करते है। पशु-शरीर में रहकर हम यह सब करते आये हैं। अब मनुष्य-शरीर मिला है, अब भी यदि बुद्धि विवेकपूर्वक अपने जीवन को नहीं चलाया व क्षणिक सुखों के पीछे ही दौड़ते रहे तो अपने मूल लक्ष्य पर हम कैसे पहुँच पायेंगे ?
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