भगवान शिव चमत्कार करने वाले देवता हैं। भगवान शिव को भारत और तमाम जगहों पर शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है। भगवान शिव के भारत में 12 ज्योतिर्लिंग है। हिन्दू धर्म में भगवान शिव का विशेष महत्व है। भगवान शिव का एक ऐसा धाम जो रहस्यों से भरा हुआ है, इस धाम को किन्नर कैलाश भी कहते हैं। तिब्बत स्थित मानसरोवर कैलाश के बाद किन्नर कैलाश को ही दूसरा बडा कैलाश पर्वत माना जाता है। यहाँ शिवलिंग अपना रोज रंग बदलता है जो कि आज भी रहस्य है। माना जाता है कि व्यक्ति अपने जीवन में सिर्फ एक बार ही यात्रा कर पाता है।
[ads4]भगवान शिव की तपोस्थली किन्नौर के बौद्ध लोगों और हिंदू भक्तों की आस्था का केंद्र किन्नर कैलाश समुद्र तल से 24 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। किन्नर कैलाश स्थित शिवलिंग की ऊंचाई 40 फीट और चौड़ाई 16 फीट है। हर वर्ष सैकड़ों शिव भक्त जुलाई व अगस्त में जंगल व खतरनाक दुर्गम मार्ग से हो कर किन्नर कैलाश पहुंचते हैं।
किन्नर कैलाश की यात्रा शुरू करने के लिए भक्तों को जिला मुख्यालय से क़रीब सात किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग-5 स्थित पोवारी सेसतलुज नदी पार कर तंगलिंग गाव से हो कर जाना पडता है। गणेश पार्क से क़रीब 500 मीटर की दूरी पर पार्वती कुंड है। इस कुंड के बारे में मान्यता है कि इसमें श्रद्धा से सिक्का डाल दिया जाए तो मुराद पूरी होती है।
भक्त इस कुंड में पवित्र स्नान करने के बाद क़रीब 24 घंटे की कठिन राह पार कर किन्नर कैलाश स्थित शिवलिंग के दर्शन करने पहुंचते हैं। वापस आते समय भक्त अपने साथ ब्रह्मा कमल और औषधीय फूल प्रसाद के रूप में लाते हैं।
रंग बदलता है शिवलिंग
शिवलिंग की एक चमत्कारी बात यह है कि दिन में कई बार यह रंग बदलता है। सूर्योदय से पूर्व सफेद, सूर्योदय होने पर पीला, मध्याह्न काल में यह लाल हो जाता है और फिर क्रमश: पीला, सफेद होते हुए संध्या काल में काला हो जाता है। क्यों होता है ऐसा, इस रहस्य को अभी तक कोई नहीं समझ सका है। किन्नौर वासी इस शिवलिंग के रंग बदलने को किसी दैविक शक्ति का चमत्कार मानते हैं, कुछ बुद्धिजीवियों का मत है कि यह एक स्फटिकीय रचना है और सूर्य की किरणों के विभिन्न कोणों में पडने के साथ ही यह चट्टान रंग बदलती नज़र आती है
1993 में से शुरू हुई यात्रा
1993 से पहले इस स्थान पर आम लोगों के आने-जाने पर प्रतिबंध था। 1993 में पर्यटकों के लिए खोल दिया गया, जो 24000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ 40 फीट ऊंचे शिवलिंग हैं। यह हिंदू और बौद्ध दोनों के लिए पूजनीय स्थल है। इस शिवलिंग के चारों ओर परिक्रमा करने की इच्छा लिए हुए भारी संख्या में श्रद्धालु यहाँ पर आते हैं।
पौराणिक महत्व
किन्नर कैलाश के बारे में अनेक मान्यताएं भी प्रचलित हैं। कुछ विद्वानों के विचार में महाभारत काल में इस कैलाश का नाम इन्द्रकीलपर्वतथा, जहाँ भगवान शंकर और अर्जुन का युद्ध हुआ था और अर्जुन को पासुपातास्त्र की प्राप्ति हुई थी। यह भी मान्यता है कि पाण्डवों ने अपने बनवास काल का अन्तिम समय यहीं पर गुजारा था। किन्नर कैलाश को वाणासुर का कैलाश भी कहा जाता है। क्योंकि वाणासुरशोणितपुर नगरी का शासक था जो कि इसी क्षेत्र में पडती थी। कुछ विद्वान रामपुर बुशैहर रियासत की गर्मियों की राजधानी सराहन को शोणितपुरनगरी करार देते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि किन्नर कैलाश के आगोश में ही भगवान कृष्ण के पोते अनिरुध का विवाह ऊषा से हुआ था।
किन्नर कैलाश को हिमाचल का बदरीनाथ भी कहा जाता है और इसे रॉक कैसलके नाम से भी जाना जाता है। इस शिवलिंगकी परिक्रमा करना बडे साहस और जोखिम का कार्य है। कई शिव भक्त जोखिम उठाते हुए स्वयं को रस्सियों से बांध कर यह परिक्रमा पूरी करते हैं। पूरे पर्वत का चक्कर लगाने में एक सप्ताह से दस दिन का समय लगता है।
ऐसे शुरू होती है यात्रा-
पहला दिन
सबसे पहले सभी यात्रियों को इंडो तिब्बत बार्डर पुलिस पोस्ट पर यात्रा के लिए अपना पंजीकरण कराना होता है। यह पोस्ट 8,727 फीट की ऊंचाई पर है। यह किन्नौर ज़िला मुख्यालय रेकांग प्यो से 41 किमी की दूरी पर है। उसके बाद लांबार के लिए प्रस्थान करना होता है। यह 9678 फीट की ऊंचाई पर है। जो 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ जाने के लिए खच्चरों का सहारा लिया जा सकता है।
दूसरा दिन
इसके उपरांत 11,319 फीट की ऊंचाई पर स्थित चारांग के लिए चढ़ाई करनी होती है। जिसमें कुल 8 घंटे लगते हैं। लांबार के बाद ज्यादा ऊंचाई के कारण पेड़ों की संख्या कम होती जाती है। चारांग गांव के शुरू होते ही सिंचाई और स्वास्थ्य विभाग का गेस्ट हाउस मिलता है, जिसके आसपास टेंटों में यात्री विश्राम करते हैं। इसके बाद 6 घंटे की चढ़ाई वाला ललांति (14,108) के लिए चढ़ाई शुरू हो जाती है।
तीसरा दिन
चारांग से 2 किलोमीटर की ऊंचाई पर रंग्रिक तुंगमा का मंदिर स्थित है। इसके बारे में यह कहा जाता है कि बिना इस मंदिर के दर्शन किए हुए परिक्रमा अधूरी रहती है। इसके बद 14 घंटे लंबी चढ़ाई की शुरूआत हो जाती है।
चौथा दिन
इस दिन एक ओर जहाँ ललांति दर्रे से चारांग दर्रे के लिए लंबी चढ़ाई करनी होती है, वहीं दूसरी ओर चितकुल देवी की दर्शन हेतु लंबी दूरी तक उतरना होता है।