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अभ्रक भस्म के गुण और विभिन्न बिमारियों में उपयोग की विधि.

अभ्रक भस्म के प्रधान गुण – Abhrak Bhasm ke fayde

अभ्रक भस्म त्रिदोष नाशक, प्रमेह, कुष्ठ, उदररोग, राजयक्ष्मा, पांडू, कामला, गृहणी, शूल, श्वास, कास, गाम, मन्दाग्नि, ज्वर, गुल्म, अर्श, मानसिक दुर्बलता, मृगी, उन्माद, हृदय रोग, प्रसूत, निर्बलता आदि सब प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोगों में यह भस्म लाभदायक सिद्ध होती है. इसके सेवन से शरीर सुदृढ़ और बलवान होता है. यह भस्म बलकारक और रसायन है.

अभ्रक भस्म के विभिन्न रोगों में उपयोग.

वात पित्त कफ (त्रिदोष)

वात पित्त कफ़ का एक साथ कुपित होना त्रिदोष (सन्निपात) कहलाता है. ऐसी अवस्था में बढे हुए दोषों के अनुसार अनुपान देकर अभ्रक भस्म का सेवन कराना चाहिए.

प्रमेह

प्रमेह रोग में शिलाजीत के साथ अभ्रक भस्म का सेवन कराया जाता है.

कुष्ठ और रक्त विकार

कुष्ठ और रक्त विकार में अभ्रक भस्म को खादिरारिष्ट के साथ दिया जाता है.

उदर रोगों में.

उदर रोगों में कुमार्यासव के साथ इस भस्म का सेवन अत्यंत लाभदायक सिद्ध होता है.

राजयक्ष्मा और क्षय रोग में.

राजयक्ष्मा का आभास होने पर अथवा क्षय कि प्रथमावस्था में जब रोगी का शरीर कास और मंदज्वर के कारण क्षीण होने लगता है, उस अवस्था में प्रवालपिष्टी, श्रंग्भस्म और गिलोय सत्व के साथ अभ्रक भस्म का नियमित सेवन 100 में 85 रोगियों पर सफल साबित हुआ है.

पांडू और कामला रोग (पीलिया और एनीमिया)

रक्ताणुओं की कमी से उत्पन्न पांडू और कामला रोग में अभ्रक भस्म को मंडूर और अमृतारिष्ट के साथ देने से बहुत फायदा होता है. रक्त की कमी या प्लेटलेट्स कम होने पर डॉक्टर दुसरे का रक्त या प्लेटलेट्स शरीर में चढाते हैं, आयुर्वेद चिकित्सा में यह काम गिलोय सत्व के साथ अभ्रक भस्म का सेवन कराने से ही हो जाता है. इमरजेंसी में रक्त चढ़ाना इसका अपवाद है.

संग्रहणी रोग में.

संग्रहणी में अभ्रक भस्म का सेवन कुटज अवलेह के साथ करना चाहिए. यह आम के कृमि को समूल नष्ट कर रोगी को पूर्ण स्वस्थ बना देती है.

वातजन्य शूल में.

वातजन्य शूल में शंख भस्म अथवा अजवायन अर्क के साथ अभ्रक भस्म का सेवन महोपकारी होता है.

नए पुराने श्वांस रोग में.

श्वांस रोग पुराना हो जाने से रोगी बहुत कमज़ोर हो जाता है. और बहुत खांसने पर चिकना सफ़ेद कफ निकलता है तथा थोडा सा परिश्रम करने से पसीना आता है. ऐसी अवस्था में अभ्रक भस्म का सेवन पिप्पली चूर्ण और मधु(शहद) के साथ करना अत्यंत लाभदायक है. अथवा 1 तोला च्यवनप्राश आधी रत्ती स्वर्ण भस्म के साथ सेवन कराने से आशातीत लाभ होता है.

खांसी में

सामान्य कास रोग में, अधिक कफ स्त्राव होने पर श्रृंग भस्म या वासवालेह तथा शुष्क कास रोग में प्रवाल पिष्टी और सितोप्लादी चूर्ण तथा मक्खन या मधु के साथ इस भस्म का सेवन कराने से बहुत फायदा होता है.

आमांश में.

आमांश में कुट्जारिष्ट के साथ अभ्रक भस्म देने से लाभ होता है.

मन्दाग्नि में.

मन्दाग्नि में त्रिकटु चूर्ण के साथ अभ्रक भस्म का सेवन हितकारी होता है.

जीर्ण ज्वर में.

जीर्ण ज्वर में लाघुमालिनी वसंत के साथ अभ्रक भस्म का सेवन अति लाभप्रद सिद्ध होता है.

खुनी बवासीर में.

रक्तार्श अगर पुराना हो जाए और बारम्बार रक्तस्त्राव होने लगता है या शरीर के सबल होते ही रक्तस्त्राव होने लगता हो तो ऐसी दशा में अभ्रक भस्म शुक्तिपिष्टि के साथ देने से रक्त स्त्राव बंद हो जाता है.

मानसिक दुर्बलता और मानसिक रोग होने पर.

मानसिक दुर्बलता होने पर कार्य करने का उत्साह नष्ट हो जाता है. चित में अत्यधिक चंचलता रहती है, रोगी निस्तेज, चिंताग्रस्त और क्रोधी हो जाता है. ऐसी अवस्था में अभ्रक भस्म का सेवन मुक्तापिष्टी के साथ कराना बहुत लाभदायक होता है. भोजन के नहीं पचने पर रस रक्त आदि के न बनने से ओज भी नहीं बनता, फलस्वरूप अपस्मार , उन्माद, स्मृतिनाश, अनिद्रा, चित चंचल, हिस्टीरिया आदि मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं. अभ्रक भस्म के सेवन से थोड़े ही दिनों में शारीरिक परमाणुओं कि वृद्धि होकर ओज कि प्राप्ति हो जाती है और वे सुद्रढ़ हो जाते हैं. जिसमे मानसिक रोगों का निराकरण होकर रोगी स्वस्थ हो जाता है. देहरादून हरिद्वार आदि हिमालय प्रदेशीय इलाको में ब्राह्म चूर्ण के साथ अभ्रक भस्म का सेवन करने से मानसिक रोगों पर जादू का सा असर होता है.

हृदय दुर्बलता में.

हृदय की दुर्बलता के लिए अभ्रक भस्म उपयोगी औषिधि है. नागार्जुनाभ्र जो हृदय पुष्टि के लिए प्रसिद्ध औषिधि है, केवल अभ्रक भस्म का ही प्रयोग है. अभ्रक भस्म हृदय उत्तेज़क ज़रूर है, लेकिन कुचला और कर्पूर के समान नहीं. यह हृदय के स्नायुमय घटों को सबल बना कर हृदय को उत्तेजित करती है. 1 तोला मधु के साथ अभ्रक भस्म सेवन करने पर हृदय रोग निवारण में बहुत लाभ होता है.

प्रसूता (गर्भिणी) रोग में.

प्रसूता रोग में देवदावार्दि कवाथ या दशमूल क्वाथ के साथ अभ्रक भस्म सेवन करने से अत्युत्तम लाभ होता है.

निर्बलता

निर्बलता की बीमारी में च्यवनप्राश और प्रवालपिष्टी के साथ इसे खाना चाहिए. अभ्रक भस्म योगवाही है. अतः संयोगी द्रव्यों के गुणों को बढाती है. पाचन विकार में आँतों की शक्ति को उत्तेजित करने और स्वाद उत्पन्न करने के लिए अभ्रक भस्म का मिश्रण देना अत्यंत गुणकारी है.

अम्लपित्त रोग में.

अम्लपित्त रोग में अभ्रक भस्म का प्रयोग अति सुंदर फल देता है. पाचक और रंजक पित्त की कमी होने पर यकृत विकार को दूर करने के लिए मंडूर के साथ अभ्रक भस्म देना चाहिए. इसी प्रकार अरुचि, अम्लपित्त और पित्त की प्रबलता आदि में कपर्दक भस्म और प्रवालपिष्टी के साथ प्रयोग करने से अच्छा लाभ होता है.

अभ्रक पर्पटी

मन्दाग्नि संग्रहणी में अभ्रक पर्पटी उत्तम कार्य करती है. स्थायी मलावरोध और संचित मल के विकारों के लिए भी अभ्रक पर्पटी का प्रयोग महोपकारी सिद्ध होता है.

विशेष.

अभ्रक भस्म को 10 से 1000 तक गजपुट देने का शास्त्रीय विधान है. जितनी अधिक गजपुट दी जाए, यह उतना ही अधिक गुण दायिनी होती है. अभ्रक भस्म को सेवन करने के लिए ऋतू का प्रतिबन्ध नहीं होता. किसी भी मौसम में इसका सेवन किया जा सकता है.

अभ्रक भस्म सेवन की मात्रा

1 से 2 रत्ती (125 से 250 मिली ग्राम.) दिन में दो से चार बार तक अथवा रोगानुसार बलाबल देखकर देनी चाहिए.

[यहाँ क्लिक कर के ज़रूर पढ़ें – आयुर्वेद में प्रयोग होने वाली भस्मे और इनके फायदे.]

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